Sunday, 3 July 2011

दिल्ली मेट्रो की चकाचौंध के पीछे निर्माण मजदूरों की जिन्दगी में अँधेरा

मेट्रो निर्माण मज़दूरों की नारकीय जीवन स्थितियों  की तस्वीर- अगर मज़दूरों के काम की परिस्थितियों की बात की जाये, तो वह दिल दहला देने वाली हैं। मेट्रो के दूसरे चरण में 125 कि.मी लाइन के निर्माण के दौरान 20 हजार से 30 हजार मजदूर दिन-रात काम करते है मज़दूरों से श्रम कानूनों को तोड़ते हुए 12 से 15 घण्टे काम करवाया जाता है। इन्हें न तो न्यूनतम मज़दूरी दी जाती है और कई बार साप्ताहिक छुटटी तक नहीं दी जाती, ई एस आई और पी एफ तो बहुत दूर की बात है। सरकार और मेट्रो प्रशासन ने दिल्ली का चेहरा चमकाने और कामनवेल्थ गेम्स से पहले निर्माण कार्य को पूरा काने के लिए ठेका कम्पनियों को मज़दूरों को जानवरों की तरह निचोड़ने की पूरी छूट दे दी है। मज़दूरों से अमानवीय स्थितियों से काम कराया जाता है। उनकी के लिये सुरक्षा उपायों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। मज़दूरों की जान से खिलवाड़ करते हुए मुनाफा कमाने का यह नंगा खेल लगातार जारी रहता है। इन्हें जो सेफ्टी हेलमेट दिया जाता है वह पत्थर की बात की चोट तक नहीं
रोक सकता। एक हेलमेट के अतिरिक्त इतना ख़तरनाक काम करने के बावजूद उन्हें कुछ नहीं दिया जाता है।बात सिर्फ इतनी ही नहीं है आज मज़दूर ठेकेदारों के रहमोकरम पर इतना निर्भर है वह कम्पनी द्वारा एक ठेकेदार या आगे सब-ठेकेदारों द्वारा रखे जातें हैं, इन ठेकेदार को जोबर भी कहा जाता है वह अपने गांव के लोगों को व्यक्तिगत सम्बन्धों के तौर पर लेकर आता है और उनके गांव की गरीबी का फायदा उठाते हैं। जिनकी गिनती 10 से 100 तक की भी होती हैं। वह खुद उनके रहने का इन्तज़ाम करता है। रहने वाले कमरों में 10 से १५ मज़दूर होते हैं जहां पर न तो साफ हवा, पानी, बिजली, सीवरेज आदि सुविधायें मज़दूरों को उपलब्ध नहीं जो जिन्दगी को ओर अधिक नर्क बना देती हैं, क्योंकि अगर मज़दूर की किसी भी सूरत में अपने हक के लिए बात करता है यानि श्रम कानूनों व सुरक्षा उपायों को लागू करने के लिए तो तुरन्त डीएमआरसी और ठेका कम्पनी उस जोबर को बुलवाकर मज़दरों की आवाज को दबा दिया जाता है या काम से निकलवा दिया जाता है और जोबर मज़दूरों से जगह खाली करवा लेता है । ऐसे में मज़दूर तुरन्त सड़क पर आ जाते हैं। उनके सामने सीधा अस्तित्व का सवाल खड़ा हो जाता है या तो वह इसका सामने करने के लिए खड़ा हो या फिर समझौता कर लें। ज्यादातर ऐसी परिस्थिति मज़दूरों को झुकने के लिए तथा सब कुछ सहन करने के लिए मजबूर कर देती है। मेट्रो प्रशासन तथा ठेका कम्पनी साफ बच निकलती है। मजदूरों की अपनी कोई यूनियन न होने की वजह से वे सीधे ठेकेदार से हक मांगना तो दूर वह कोई सवाल तक नहीं कर पाते। मजदूरों की मज़दूरी का भुगतान और पहचान का सवाल- ठेकेदारों द्वारा काम पर रखे गए मजदूरों में से किसी  केा भी कानूनी रूप से तयशुदा न्यूनतम मजदूरी और अन्य सुविधा नहीं दी जाती है। मजदूरों को मिलने वाली मजदूरी में काफी अंतर है क्योंकि ये मजदूरी मनमाने ढ़ग से ठेकेदारों द्वारा तय की गई है मेट्रो रेल में अकुशल मजदूरों को 12 घण्टे के काम के लिए 100 से 140 रुपये प्रतिदिन तक दिये जाते है जबकि कानूनन न्यूनतम वेतन के अनुसार एक अकुशल मजदूर का 12 घण्टे काम के २८४ रुपये मिलने चाहिए। जिसे सापफ है मजदूरों का उनकी न्यूनतम मजदूरी से 150 रुपये कम मिल रहे है । मजदूरों को कोई वेतन पर्ची या भुगतान रसीद भी नहीं दी जाती । इस तरह उनके पास अपने रोजगार या उसकी अवधि का  कोई सूबत नहीं होता है। पहचान के नाम पर मजदूरों पास हेलमेट और जैकेट होती है वैसे नाम के लिए ठेका कम्पनियों कुछ मजदूर को पहचान पत्रा देती भी है जो सिपर्फ खानापूर्ति होती है क्योंकि इस कार्ड पर न तो मजदूरों का जॉब नम्बर होता है न ही काम पर नियुक्ती की तिथि होती है दूसरी तरपफ मेट्रो के लिए काम करने वाले निर्माण मजदूरों को डी.एम.आर.सी ने कोई पहचान पत्र नहीं दिया है और वह उन्हें अपना मजदूर तक भी नहीं मानता। जबकि कानूनन मेट्रो के निर्माण से प्रचलन तक में लगे सभी ठेका मजदूरो का प्रमुख नियोक्ता डी.एम.आर.सी है। पारदर्शिता का दावा ठोकने वाली मेट्रो के पहियों और खंभों में न जाने कितने मजदूरों की लाश दफन है। इसका खुलासा अब धीरे-धीरे हो रहा है मेट्रो का चेहरा अंदर से कितना क्रूर है इसकी तस्वीर एक दैनिक अखबार की रिपोर्ट बताती है जिसके अनुसार मेट्रो के दस साल के निर्माण कार्य में 200 से ज्याद मजदूर मारे गए है अब तक हुए मेट्रो हादसे मे जब भी एक से अधिक मजदूरो, कर्मचारियों और लोगों की मौत हुई है तो उस पर हल्ला मचा है। इस हल्ले के शोर को कम करने के लिए मेट्रो ने हर बार मुआवजे की घोषणा की है। लेकिन दूसरी तरफ जब भी किसी अकेले मजदूर,कर्मचारी या राहगीरों की मौत हुई है मेट्रो उससे पल्ला झाड़ने में जुट गया। और इन इक्का-दुक्का मौत पर मुआवजा भी नहीं दिया। जिसका उदाहरण नांगलोई में मजदूरों के मरने की बात हो या मंदिर मार्ग हादसा की घटना है कहीं भी मेट्रो न मुआवजा नहीं दिया। और यही नहीं 22 जुलाई को इंद्रलोक- मुंडका लाइन पर मरे गए मजदूर विक्की की मौत पर भी मेट्रो पल्ला झाड़ता नजर आया। ठेका कम्पनियों के प्रति डी.एम.आर.सी की वापफदारी- दिल्ली मेट्रो के द्वितीय चरण के निर्माण एवं अन्य कार्यों में करीब 215 कम्पनियां शामिल हैं, जिसमें एलिवेटेड लाइन के निर्माण में गेमन इंडिया,एल एंड टी, एफकॅान, आईडीईबी, सिंप्लेक्स कम्पनी लगी हुई है जबकि भूमिगत लाइनों के निर्माण में एफकान, आईटीसीएल, आईटीडी, सेनबो इंजीनियरिगं कम्पनियां लगी हुई हैं इन कम्पनियां का उद्देश्य सिर्फ लाभ कमाना है, सामाजिक जिम्मेदारी से इनका कोई सरोकार नहीं हैं यही वजह है कि मेट्रो की कार्य संस्कृति भी सामाजिक सरोकारों से बहुत दूर हैं तभी तो मजदूर के शरीर पर लांचर गिरे,
पुल टूटकर मजदूर केा दफनाए या जिंदा मजदूर मिटृी में दफन हो जाए लेकिन मेट्रो निर्माण में लगी कम्पनियों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। जिसका उदाहरण लक्ष्मीनगर हादसे की दोषी एफकॅान कम्पनी है क्योकि लक्ष्मीनगर हादसे के बाद डी.एम.आर.सी ने एफकॅान कम्पनी पर 10 लाख का जुर्माना लगाने के साथ ही उसे काली सूची में डाल दिया था लेकिन फिर भी एफकॅान कम्पनी दूसरे चरण के किसी निर्माण कार्य से अलग
नहीं किया गया। कैग रपट के अनुसार मेट्रो प्रशासन की काली करतूतें
1.मेट्रो रेल पुल और लाईन बनाने मे प्रयुक्त सामानेां की गुणवत्ता की जांच अवैध्
प्रयोगशालों मे होती है। जांच के समय डी.एम.आर.सी का अधिकारी भी नहीं रहते
मौजूद।
2. रपट में कहा गया कि डी.एम.आर.सी की सीधी जबावदेही न तो केन्द्र सरकार के
शहरी विकास मंत्रालय के प्रति है और न ही सापफ तौर पर दिल्ली सरकार के प्रति।
दूसरी तरफ डी.एम.आर.सी पर केन्द्र व राज्य की ओर से कोई नियमित निगरानी तंत्रा का
अभाव है
3.समय पर काम पूरा करने के लिए जंाच के नाम पर होती है खानापूर्ति और जांच पूरी
तरह ठेकेदारों के हवाले।
4.लक्ष्मीनगर हादसे की दोषी एफकॅान इंडिया पर 10 लाख का जुर्माना लगाने के साथ
ही उसे काली सूची में डाल दिया था। लेकिन फिर भी एफकॅान को दूसरे चरण के
काम से हटाया ही नहीं गया।
5.मेट्रो ने सरकार से 14 से 354 पफीसद अधिक जमीन ली थी लाइन बिछाने के लिए, लेकिन वहां बना दिये शॅापिंग माल और शोरूम ताकि मुनाफा पिट सके। और एक आरटीआई के जबाव में मेट्रो ने बताया है कि डी.एम.आर.सी एक माह का शुद्ध मुनाफा 17 करोड़ है। डी.एम.आर.सी. और सरकार की हत्यारी नीतियाँ और ठेका कम्पनी की मुनाप़फाख़ोर हवस!

दिल्ली मेट्रो में कार्यरत मज़दूरों की जीवन स्थितियां आज हमें सोचने के लिए मजबूर कर रही है कि देश के 63 साल आजाद होने के बाद भी क्या सचमुच देश की मेहनतकश आबादी आजाद है? अगर वह आजाद है तो 10-12 घण्टे हर रोज मौत के साये तले गुलाम की तरह काम करने के लिए, जिसमें अगर जिन्दा रहा तो उसे पगार मिल जायेगी वरना वे भी काम के दौरान हर रोज देश मे मरने वाले 6000 मजदूरों की गिनती में शामिल हो जायेगें। दूसरी तरफ इन तमाम बेकसूर मेहनतकशों की मौत के जिम्मेदार हत्यारों की न तो गिरफ्तारी होती, न ही सजा मिलती और न ही मजदूरों को इंसाफ मिलता है। जमरूदपुर मेट्रो हादसे की ताज़ा घटना उसी का एक और प्रमाण है। पिछली 12 जुलाई की सुबह दिल्ली के जमरूदपुर इलाव़फे में मेट्रो रेल का बन रहा पुल गिर जाने से 6 मज़दूरों की मौत हो गयी और करीब 20 से 25 मज़दूर घायल हो गये जिनमें से कुछ की हालत गम्भीर है। उस जगह पर काम करने वाले मज़दूरों  और उनके सुपरवाइज़र ने मेट्रो प्रशासन और ठेका कम्पनी गैमन को बहुत पहले ही बता दिया था कि इस जगह पर काम करना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। पुल के पिलर न0 ६७ में कुछ महीने पहले दरार आ गयी थी जिसके चलते करीब तीन महीने पहले काम रोकना पड़ा था। लेकिन 2010 के कामनवेल्थ गेम्स से पहले मेट्रो रेल का काम पूरा करके वाहवाही लूटने के चक्कर में मेट्रो प्रशासन ने ठेका कम्पनियों को मज़दूरों का शोषण करने, सभी श्रम व़फानूनों का उल्लंघन करने और तमाम सुरक्षा उपायों की
अनदेखी करने की पूरी छूट दे रखी थी। इसीलिए ठेका कम्पनी गैमन इण्डिया ने मेट्रो प्रशासन के इंजीनियरों की जानकारी और इजाज़त से उस दरार की थोड़ी-बहुत मरम्मत करवाकर दो-तीन दिन पहले पिफर से काम शुरू करा दिया। 11 जुलाई की रात भी पुल के टूटने के डर से काम को रोकना पड़ा था। लेकिन मुनाप़फे की हवस में अन्धी कम्पनी ने 12 जुलाई की सुबह 4.30 बजे पिफर से काम शुरू करवा दिया। कुछ ही देर में दरार वाला खम्भा टूट गया और पुल में लगने वाला लोहे का कई सौ टन का लांचर टूटकर गिर पड़ा जिसके नीचे करीब 35 मज़दूर आ गये। इनमें से कुछ ने दुर्घटना स्थल पर ही दम तोड़ दिया और कुछ ने अस्पताल में दम तोड़ा। इस दुर्घटना के तुरन्त बाद दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन के प्रबन्ध निदेशक ई. श्रीधरन ने प्रेस कांफ्रेंस में इस्तीफा देने की घोषण कर दी। जैसाकि तय ही था, शीला दीक्षित की सरकार ने इस्तीफा नामंजूर कर दिया। साफ है कि यह इस्तीफा इस भयंकर दुर्घटना से ध्यान हटाने के लिए की गयी एक नौटंकी था ताकि यह बात ही किनारे हो जाये। ऐसे में यह सोचने की बात है कि इन मौतों का जि़म्मेदार कौन है? इस घटना के अगले ही दिन उसी जगह पर टूटे लांचर को हटाने के लिए लगायी गयी 4 क्रेनें पलट गयीं जिससे पूरा लांचर और ढेरों मलबा पिफर नीचे गिर पड़े। इस दुर्घटना में तीन इंजीनियर और तीन मज़दूर घायल हो गये। कारपोरेट जगत की आँखों के तारे बने श्रीधरन महोदय से पूछा जाना चाहिए कि इन मज़दूरों को ठेका कम्पनियों की मुनाप़फे की हवस के भरोसे छोड़ देने के समय उनकी नैतिकता कहाँ चली गयी थी? इस हादसे के दो दिनों बाद ही 14 जुलाई की सुबह मुम्बई मेट्रो का भी पिलर गिर गया। यहाँ पर भी गैमन इण्डिया काम करवा रही थी। यही वह ठेका कम्पनी है जिसके
द्वारा निर्मित एक फ्लाईओवर पिछले वर्ष हैदराबाद में ध्वस्त हो गया था जिसमें दो लोगों की मौत हो गयी थी। गैमन इण्डिया द्वारा बनाये गये कई ढाँचे पिछले सालों के दौरान क्षतिग्रस्त हो चुके हैं। इन सबके बावजूद गैमन इण्डिया को हमेशा ‘क्लीन चिट’ मिल गयी। इसी से ठेका कम्पनियों और सरकार में बैठे अधिकारियों के अपवित्रा गठबन्धन के बारे में साप़फ पता चल जाता है। मेट्रो रेल के निर्माण में होने वाली यह पहली दुर्घटना नहीं है। इससे पहले अक्टूबर, 2008 में लक्ष्मीनगर, सितम्बर 2008 में चांदनी चैक और जुलाई 2008 में राममनोहर लोहिया अस्पताल के पास भी मेट्रो निर्माण स्थल पर दुर्घटनाएँ हो चुकी हैं, जिनमें बेगुनाह मज़दूर और नागरिक मारे गये थे। छोटी-छोटी दुर्घटनाओं की तो कोई गिनती ही नहीं है। एक घटना में तो मेट्रो के एक डम्पर ने सोते हुए मज़दूरों पर मिटटी से भरा ट्रक पलट दिया था, जिससे कई मज़दूरों की दबकर मौत हो गयी थी। इन घटनाओं की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इस पूरे निर्माण मे किसी की जिम्मेदारी तय नहीं हैं ठेका कम्पनियां सुरक्षा मानकों का पालन नहीं करती हैं। ऐसे में कोई भी दुर्घटना होने पर सरकार डी.एम.आर.सी पर जिम्मेदारी डालती है,डी.एम.आर.सी ठेकेदार पर और ठेकेदार छोटे ठेकेदार या छोटे कर्मचारी को जिम्मेदार ठहरा कर पल्ला झड़ा देते है। और बलि का बकरा बनता है एक अदना सा कर्मचारी जबकि हकीकत में मूल जिम्मेदारी डी.एम. आर.सी की बनती है क्योंकि डी.एम.आर.सी ही सुरक्षा तंत्रा और ठेका कम्पनियां की
निगरानी के लिए जबावदेह हैं, श्रम कानूनों का यह नंगा उल्लंघन सिर्फ निर्माण मज़दूरों के साथ ही नहीं हो रहा है। मेट्रो में काम करने वाले समस्त ठेका मज़दूरों के श्रम अधिकारों का डी.एम.आर.सी. और ठेका कम्पनियाँ इसी बेशर्मी के साथ मखौल उड़ा रही हैं। कुछ और तथ्यों पर निगाह डालिये। मेट्रो स्टेशनों और डिपो पर काम करने वाले करीब 3000 सफाई कर्मचारी नौ ठेका कम्पनियों के तहत काम कर रहे हैं, जिन्हें 2800 से 3300 रुपये तक तनख़्वाह मिलती है, जबकि  कानूनन उनकी तनख़्वाह 5300 रुपये होनी चाहिए। इस पर जब मज़दूरों ने ‘मेट्रो कामगार संघर्ष समिति’ बनाकर आन्दोलन किया तो आन्दोलन में शामिल मज़दूरों को डी.एम.आर.सी. और ठेका कम्पनियों ने निकालना शुरू कर दिया। जब इससे भी बात नहीं बनी तो दिल्ली प्रशासन के साथ मिलकर डी.एम.आर.सी. ने उन्हें दो दिनों के लिए जेल में भी डलवाया। यह आन्दोलन अभी भी जारी है। इस तरह के सैकड़ों आँकड़े गिनाये जा सकते हैं जिसके ज़रिये डी.एम.आर.सी. और ठेका कम्पनियों द्वारा श्रम व़फानूनों, सुरक्षा उपायों और कार्य-स्थितियों की उपेक्षा का प्रमाण मिलता है। यह कोई अनजाने में होने वाली उपेक्षा नहीं है। इसके पीछे डी.एम.आर.सी. और ठेका कम्पनियों की मुनाफे की हवस और उनका भ्रष्टाचार है। जिसके कारण मेट्रो कामगार संघर्ष समिति ने निर्माण मजदूरों को आन्दोलन में साथ लेते हुए ठेक
मुख्यमन्त्री शीला दीक्षित और तमाम बड़े नेता और नौकरशाह सामने आ चुके हैं। दूसरी तरफ, यह तथ्य भी सामने आया कि मेट्रो रेल के तमाम निर्माण स्थलों पर सभी श्रम कानूनों और सुरक्षा मानकों का उल्लंघन करते हुए मज़दूरों से काम करवाया जा रहा है। यह कारगुज़ारी अभी भी जारी है। ज्ञात हो कि मेट्रो रेल के निर्माण में लगे लगभग सभी मज़दूर ठेके पर काम कर रहे हैं। इन्हें डी.एम.आर.सी. अपना कर्मचारी तक नहीं मानता
जो कि 1971 के ठेका मज़दूर कानून का सरासर उल्लंघन है। इस कानून के अनुसार ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों का भी प्रमुख नियोक्ता काम करवाने वाली कम्पनी या कारपोरेशन ही होगा और न्यूनतम मज़दूरी कानून, ट्रेड यूनियन एक्ट और वर्कमेंस कंपेंसेशन एक्ट जैसे कानूनों को लागू करवाना प्रमुख नियोक्ता की जिम्मेदारी होगी। लेकिन डी.एम.आर.सी. इन मज़दूरों को न कोई पहचान पत्रा देता है और न ही उन्हें
अपना मज़दूर मानता है। इन मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं दी जाती। इनके सुरक्षा के क्या इंतज़ाम किये गये हैं यह तो जमरूदपुरा में हुई दुर्घटना ने दिखला ही दिया। सुरक्षा के नाम पर इन्हें एक प्लास्टिक की टोपी और फ्लुरोसेंट जैकेट दे दिया जाता है जो इन्हें पत्थर की चोट से भी नहीं बचा सकता। जो इन्हें पत्थर की चोट से भी नहीं बचा सकता। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि मेट्रो के निर्माण में लगे
मज़दूर अपनी जान पर खेलकर काम कर रहे हैं। डी.एम.आर.सी. ने कामनवेल्थ गेम्स से पहले दूसरे चरण का काम पूरा करवाने के लिए ठेका कम्पनियों को मज़दूरों को निचोड़ डालने की पूरी आज़ादी दे दी है। बिना
डबल ओवरटाइम दिये मज़दूरों से 13-14 घण्टे तक काम करवाया जा रहा है। ज्ञात हो कि कानून सिर्फ़ चार घण्टे के ओवरटाइम की इजाज़त देता है। लेकिन गैमन इण्डिया जैसी कम्पनियां मज़दूरों से गुलामों की तरह 14 घण्टे तक काम करवा रही हैं, जो एक तरह से बेगारी है। न्यूनतम मज़दूरी की आधा मज़दूरी श्रमिकों को दी जा रही है। इस प्रदर्शन के बाद मेट्रो कामगार संघर्ष समिति ने अपना माँगपत्राक सरकार को और
डी.एम.आर.सी. को सौंपा। मेट्रो कामगार संघर्ष समिति ने इस माँगपत्राक में माँग की है कि-
1. जमरूदपुरा में हुई दुर्घटना की उच्चस्तरीय न्यायिक जाँच हो, न कि डी.एम.आर.सी. द्वारा
विभागीय जाँच।
2. दुर्घटना में पीडि़त मज़दूरों और उनके परिवार को डी.एम.आर.सी. भी हरज़ाना दे और
साथ ही परिवार के काम करने योग्य सदस्य को नौकरी भी।
3. गैमन इण्डिया को सरकार तत्काल ब्लैकलिस्ट करे ।
4. जमरूदपुरा की साइट पर काम को जारी रखने की अनुमति देने वाले डी.एम.आर.सी.
अधिकारी को तत्काल बर्खास्त किया जाय, उसके खि़लाफ़ आपराधिक मामला दजऱ् किया
जाय और उसके खि़लाफ़ जाँच करवाई जाय।
5. डी.एम.आर.सी. मेट्रो के निर्माण और प्रचालन में लगे सभी श्रमिकों को श्रम कानून
प्रदत्त सभी अधिकार दे और श्रम कानूनों का उल्लंघन बन्द करे ।
6. मेट्रो में ठेका प्रथा को समाप्त करके सभी मज़दूरों को स्थायी किया जाय।
7. आगे ऐसी दुर्घटनाओं को रोकने के लिए डी.एम.आर.सी. ऐसी प्रणाली बनाए जिसमें
ठेकेदारों और डी.एम.आर.सी. के अधिकारियों के प्रतिनिधित्व के अलावा मज़दूर प्रतिनिधि
और नागरिक प्रतिनिधि भी हों।
मेट्रो कामगार संघर्ष समिति ने डी.एम.आर.सी. को चेतावनी दी कि अगर मेट्रो
प्रशासन मज़दूरों की इन माँगों को नहीं मानता है तो उसके खि़लाफ़ आन्दोलन को और तेज़
किया जाएगा। मज़दूर डी.एम.आर.सी. और ठेका कम्पनियों के अत्याचार के विरुद्ध चुप नहीं
रहेंगे। मेट्रो प्रशासन को इस मामले में कोर्ट में भी घसीटकर लाया जाएगा।

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